Add To collaction

मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


धिक्कार-2 मुंशी प्रेम चंद
9
गाड़ी चली तो माता ने कहा- ऐसा बेशर्म आदमी नहीं देखा। मुझे तो ऐसा क्रोध आ रहा था कि उसका मुँह नोच लूँ।
मानी ने सिर ऊपर न उठाया।
माता ‍फिर बोली- न जाने इन सड़ियलों ‍को बुद्धि कब आयेगी, अब तो मरने के दिन भी आ गये। पूछो, तेरा लड़का भाग गया तो हम क्या करें; अगर ऐसे पापी न होते तो यह वज्र ही क्यों गिरता।
मानी ने फिर भी मुँह न खोला। शायद उसे कुछ सुनाई ही न दिया था। शायद उसे अपने अस्तित्व का ज्ञान भी न था। वह टकटकी लगाये खिड़की की ओर ताक रही थी। उस अंधकार में उसे जाने क्या सूझ रहा था ।
कानपुर आया। माता ने पूछा- बेटी, कुछ खाओगी? थोड़ी-सी मिठाई खा लो; दस कब के बज गये।
मानी ने कहा- अभी तो भूख नहीं है अम्माँ, फिर खा लूँगी।
माताजी सोई। मानी भी लेटी; पर चचा की वह सूरत आँखों के सामने खड़ी थी और उनकी बातें कानों में गूँज रही थीं- आह ! मैं इतनी नीच हूँ, ऐसी पतित, कि मेरे मर जाने से पृथ्वी का भार हल्का हो जायगा? क्या कहा था, तू अपने माँ-बाप की बेटी है तो फिर मुँह मत दिखाना। न दिखाऊँगी, जिस मुँह पर ऐसी कालिमा लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने की इच्छा भी नहीं है।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानी ने अपना ट्रंक खोला और अपने आभूषण निकालकर उसमें रख दिये। ‍फिर इंद्रनाथ का चित्र निकालकर उसे देर तक देखती रही । उसकी आँखों में गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी। उसने तसवीर रख दी और आप-ही-आप बोली- नहीं-नहीं, मैं तुम्हारे जीवन को कलंकित नहीं कर सकती। तुम देवतुल्य हो, तुमने मुझ पर दया की है। मैं अपने पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित कर रही थी। तुमने मुझे उठाकर हृदय से लगा लिया; लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करूँगी। तुम्हें मुझसे प्रेम है। तुम मेरे लिये अनादर, अपमान, निंदा सब सह लोगे; पर मैं तुम्हारे जीवन का भार न ‍बनूँगी।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानी आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे अदृश्य हो गये और उस अंधकार में उसे अपनी माता का स्वरूप दिखाई दिया-ऐसा उज्ज्वल, ऐसा प्रत्यक्ष कि उसने चौंककर आँखें बंद कर लीं।

   1
0 Comments